नरेंद्र
मोदी जी की सरकार ने शपथ लेने के बाद अत्यंत तेजी से निर्णय लेने शुरू किए है उनमे
से एक है कि नरेन्द्र मोदी अन्य देशो के राष्ट्राध्यक्ष व डिग्नेटरीस के साथ अपनी राजभाषा
हिंदी में ही बात करेंगे, हालांकि श्री नरेन्द्र मोदी जी पोस्ट ग्रेजुएट है व
उन्हें इंग्लिश बोलने व समझने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन इसके बाद भी यह निर्णय
लेना राजभाषा के प्रति उनके सम्मान का ही परिचायक है | इस नई सरकार के 44 में से
36 केन्द्रीय मंत्रियो ने हिंदी में शपथ ली और इतिहास रच दिया | भारत के 22
राज्यों के अलावा पकिस्तान, बांग्लादेश , नेपाल , फ़िजी , मरीशस, गयाना और सूरीनाम में
60 करोड़ से ज्यादा लोग आसानी से हिंदी बोल, लिख और समझ लेते है | अब यदि सर्वोच्च
स्तर पर भारत की बात विश्व मंच पर हिंदी में रखी जाएगी तो यह हर हिंदी भाषी के लिए
गर्व की बात होगी और इसका प्रतीकात्मक प्रभाव बहुत अधिक होगा |
इसके पहले भी अनेक राजनेता हुए जो जन सभा में पूरी भीड़ को अपनी प्रभावी वाणी से बांध कर रखने का सामर्थ्य तो रखते , परन्तु देश के बाहर वह अंग्रेजी का उपयोग ही बेहतर समझते थे , कही न कही उनके मन में यह भावना थी की कही ये हमें कम पढ़ा लिखा और गवांर न समझे | स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केवल दो ही ऐसे अपवाद रहे हैं जिसमे देश के बाहर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया ,पहला श्री अटल बिहारी बाजपाई जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र में दिया गया भाषण व दूसरा प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखरजी द्वारा दक्षेस सम्मलेन के दौरान दिया गया भाषण | ये दोनों घटनाएँ केवल इतिहास का हिस्सा बन कर ही रह गई | परन्तु हिंदी प्रचार प्रसार की दिशा में इस बार जो किया जा रहा है वह बिल्कुल नया है, हाल ही में गृह मंत्रालय ने मंत्रालयीन सभी काम हिंदी में किए जाने का आदेश जारी किया है पीएसयू व केन्द्रीय मंत्रालयों के लिए सोशल मीडिया पर हिंदी को अनिवार्य किया गया है | सरकार ने सभी अधिकारिओ को अपने ट्वीट अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी करने का आदेश दिये हैं साथ ही फेसबुक , गूगल , ब्लॉग वगैरा में भी हिंदी का इस्तेमाल करने को कहा गया है साथ ही सबसे अधिक हिंदी इस्तेमाल करने वाले नौकरशाहों को पुरस्कृत करने की भी बात कही गई है |
LIC ZTC में हमें जो ट्रेनिंग दी गई वह अंग्रेजी में दी गई, मुझे एक वाकया याद है जिसमे क्लास में फेकल्टी श्री डी. एस. तोमर के साथ हिंदी के विषय में चर्चा हो रही थी जिसमे कइयो ने हिंदी के फायदे और नुकसान को बताया, इस बहस का सञ्चालन स्वयं वह फेकेल्टी कर रहे थे और उन्होंने बहस का समापन इस बात से किया कि “अच्छी बुरी बातें एक तरफ पर मै इस क्लास में बैठे 30 अफसरों से यह पूछना चाहता हूँ कि ईमानदारी से बताये की आप में से कितने अपने बच्चो के हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ाएंगे “ हम में से कोई भी खड़ा नहीं हुआ सब मौन हो गए कोई जवाब ही नहीं था उनकी बात का | हिंदी का मर्म भी यही है कहने को तो वह हम सबकी मुख्य संपर्क भाषा व राजभाषा है परन्तु आगे आने वाले समय में हिंदी की व्यवसायिक उपयोगिता होगी इस पर शंशय है |
भाषा और संस्कृति हमारी धरोहर है ,हिंदी भाषी को हीन भावना से उबारना होगा क्योंकि मातृभाषा से सुन्दर और कोई भाषा नहीं होती उसमें ही मौलिक विचार आते है और कल्पना के पंख लगते है | हिंदी साहित्यकारों को अधिक मौलिक सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए | हिंदी साहित्य के क्षेत्र में नई प्रतिभा की नितांत कमी है | आज हम भारत में अंग्रेजी साहित्य लिखने वाले नए लेखकों जैसे कि चेतन भगत, रविन्दर सिंह ,सचिन गर्ग आदि की प्रशंसा करते हैं व उन्हें हाथों हाथ लेते हैं | परन्तु अत्यंत खेद कि बात है कि कोई नया युवा हिंदी साहित्यकार इनकी जैसी सफलता प्राप्त नहीं कर पाया | यदि हिंदी में मौलिक रचना को प्रोत्साहित करना है तो हिंदी को स्वभिमान की भाषा बनाना जरूरी है |
अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान पाने के लिए भाषा की ताकत बहुत जरूरी है | जब तक हम उनकी(अंग्रेजी) भाषा में बात करते रहेंगे जिसमे वे हमसे बेहतर है तो वे हमेशा फायदे में रहेंगे पर जब हम अपनी भाषा(हिंदी) में बात करेंगे तो दोनों पक्ष एक ही धरातल (फील्ड) पर रहेंगे और किसी को अनुचित लाभ नहीं मिलेगा | कोई भी देश ऐसे देश की इज्जत नहीं करता जो केवल उनकी नक़ल करने की कोशिश करते हैं , अमेरिका और चीन भी यदि हमसे डरते हैं तो हमारी संस्कृति से न कि किसी और चीज़ से |
भारत में वर्तमान में अंग्रेजी को ज्यादा महत्व इसलिए मिला हुआ है क्योंकि यह व्यापार की भाषा बनी हुई है कालांतर में जब तकनीक के प्रयोग से नौकरियां कम होने लगेंगी और काम के लिए व्यक्तियों की ज्यादा आवश्कता नहीं रहेगी तो यही भाषा और संस्कृति हमे हमारी मानवीय क्षमता का अहसास कराएंगी जो हमें मशीनों व तकनीको की अपेक्षा बेहतर सिद्ध करेंगी | इसका सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका ही है जिसकी नौकरियां एशिया व अन्य जगह जाने के बाद भी अमेरिकी संस्कृति व सिनेमा विश्व स्तर पर छाया हुआ है इससे सिद्ध होता है कि भाषा व संस्कृति ही किसी राष्ट्र की असली धरोहर है | अतः हिंदी का संरक्षण व संवर्धन हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए |
परन्तु
हिंदी के प्रोत्साहन का यह मतलब नहीं है कि अंग्रेजी को बिल्कुल खत्म कर दिया जाए |
इस दिशा में अत्यंत भावुक होकर एकतरफा फैसले लेना भी गलत होंगा | कंसल्टेंसी फर्म
मेकेंजी के अनुसार पश्चिम बंगाल की वाम सरकार द्वारा 1983 में प्राथमिक स्कूलों से
अंग्रेजी को हटा लेने से लाखो बंगाली युवक अन्य राज्यों के युवाओं से नौकरी पाने
के मामले में पिछड़ गए | अतः भाषा के मुद्दे पर लाभ और हानि का आंकलन करके ही कोई
निर्णय लेना उचित होगा | यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि विश्व की यदि कोई
अन्तराष्ट्रीय भाषा होगी तो केवल अंग्रेजी ही हो सकती है | भारत में अंग्रेज़ी को
हमें अधिक से अधिक व्यवसायिक लाभ के लिए उपयोग करना चाहिए परन्तु अपनी राजभाषा
हिंदी की उपेक्षा करके नहीं | इसके बजाय “ हिंदी पर जोर है पर अंग्रेजी जरूरी है “
के नारे पर काम करने की आवश्यकता है |
यदि हिंदी का
अधिक इस्तेमाल करे और अंग्रेजी को भी नज़रंदाज़ ना करे तो इसके अत्यधिक फायदे होंगे जैसे
कि हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करने वाले हजारो लोगों की जरूरत
होगी , जिससे नई नौकरिया पैदा होंगी | जिस
तरह हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत से हमने हिंदी भाषा में अत्यधिक शब्द लिए उसी तरह
हिंदी को कुछ शब्द अंग्रेजी से लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि इस तरह
के आदान प्रदान से भाषा और अधिक वृहद् और अधिक एक्सेप्टेबल हो जाती है | इससे भाषा
का विकास ही होता है आज यदि अंग्रेजी इतनी पोपुलर है इसका एक कारण यह है की इसने
विश्व की अनेक भाषाओ से कई शब्द बिना किसी सोच विचार के लिए हैं हिंदी के शब्द जैसे “चाय, वेरांडा ,अवतार
, बंगलो, चीता, गुरु , जंगल “ आदि आज अंग्रेजी की शान बने हुए है क्या बुरा है यदि
हम कुछ शब्द जैसे कि “सर्टिफिकेट , लाइन, लास्ट ,स्कूल, पावर “ अंग्रेजी से लेकर उसे
हिंदीमय बना दे | हाल ही में जब अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने भारत आने से
पहले हिंदी में “सबका साथ , सबका विकास “ कहा तो यह करोड़ो हिंदी भाषियों को यह
किसी मधुर संगीत की तरह लगा | इस तरह की हिंदी डिप्लोमेसी से हिंदी के अच्छे दिन दूर
नहीं लगते |
नोट :(यह आर्टिकल जनवरी 2015 को लिखा गया था )
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