Saturday 25 February 2017

हिंदी के अच्छे दिन


नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने शपथ लेने के बाद अत्यंत तेजी से निर्णय लेने शुरू किए है उनमे से एक है कि नरेन्द्र मोदी अन्य देशो के राष्ट्राध्यक्ष व डिग्नेटरीस के साथ अपनी राजभाषा हिंदी में ही बात करेंगे, हालांकि श्री नरेन्द्र मोदी जी पोस्ट ग्रेजुएट है व उन्हें इंग्लिश बोलने व समझने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन इसके बाद भी यह निर्णय लेना राजभाषा के प्रति उनके सम्मान का ही परिचायक है | इस नई सरकार के 44 में से 36 केन्द्रीय मंत्रियो ने हिंदी में शपथ ली और इतिहास रच दिया | भारत के 22 राज्यों के अलावा पकिस्तान, बांग्लादेश , नेपाल , फ़िजी , मरीशस, गयाना और सूरीनाम में 60 करोड़ से ज्यादा लोग आसानी से हिंदी बोल, लिख और समझ लेते है | अब यदि सर्वोच्च स्तर पर भारत की बात विश्व मंच पर हिंदी में रखी जाएगी तो यह हर हिंदी भाषी के लिए गर्व की बात होगी और इसका प्रतीकात्मक प्रभाव बहुत अधिक होगा |

            इसके पहले भी अनेक राजनेता हुए जो जन सभा में पूरी भीड़ को अपनी प्रभावी वाणी से  बांध कर रखने का सामर्थ्य तो रखते , परन्तु देश के बाहर वह अंग्रेजी का उपयोग ही बेहतर समझते थे , कही न कही उनके मन में यह भावना थी की कही ये हमें कम पढ़ा लिखा और गवांर न समझे | स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केवल दो ही ऐसे अपवाद रहे हैं जिसमे देश के बाहर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया ,पहला श्री अटल बिहारी बाजपाई जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र में दिया गया भाषण व दूसरा प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखरजी द्वारा दक्षेस सम्मलेन के दौरान दिया गया भाषण | ये दोनों घटनाएँ केवल इतिहास का हिस्सा बन कर ही रह गई | परन्तु हिंदी प्रचार प्रसार की दिशा में इस बार जो किया जा रहा है वह बिल्कुल नया है, हाल ही में गृह मंत्रालय ने मंत्रालयीन सभी काम हिंदी में किए जाने का आदेश जारी किया है पीएसयू व केन्द्रीय मंत्रालयों के लिए सोशल मीडिया पर हिंदी को अनिवार्य किया गया है | सरकार ने सभी अधिकारिओ को अपने ट्वीट अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी करने का आदेश दिये हैं साथ ही फेसबुक , गूगल , ब्लॉग वगैरा में भी हिंदी का इस्तेमाल करने को कहा गया है साथ ही सबसे अधिक हिंदी इस्तेमाल करने वाले नौकरशाहों को पुरस्कृत करने की भी बात कही गई है |

LIC ZTC में हमें जो ट्रेनिंग दी गई वह अंग्रेजी में दी गई, मुझे एक वाकया याद है जिसमे क्लास में फेकल्टी श्री डी. एस. तोमर के साथ हिंदी के विषय में चर्चा हो रही थी जिसमे कइयो ने हिंदी के फायदे और नुकसान को बताया, इस बहस का सञ्चालन स्वयं वह फेकेल्टी कर रहे थे और उन्होंने बहस का समापन इस बात से किया कि  “अच्छी बुरी बातें एक तरफ पर मै इस क्लास में बैठे 30 अफसरों से यह पूछना चाहता हूँ कि ईमानदारी से बताये की आप में से कितने अपने बच्चो के हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ाएंगे “ हम में से कोई भी खड़ा नहीं हुआ सब मौन हो गए कोई जवाब ही नहीं था उनकी बात का | हिंदी का मर्म भी यही है कहने को तो वह हम सबकी मुख्य संपर्क भाषा व राजभाषा है परन्तु आगे आने वाले समय में हिंदी की व्यवसायिक उपयोगिता होगी इस पर शंशय है |

भाषा और संस्कृति हमारी धरोहर है ,हिंदी भाषी को हीन भावना से उबारना होगा क्योंकि मातृभाषा से सुन्दर और कोई भाषा नहीं होती उसमें ही मौलिक विचार आते है और कल्पना के पंख लगते है | हिंदी साहित्यकारों को अधिक मौलिक सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए | हिंदी साहित्य के क्षेत्र में नई प्रतिभा की नितांत कमी है | आज हम भारत में अंग्रेजी साहित्य लिखने वाले नए लेखकों जैसे कि चेतन भगत, रविन्दर सिंह ,सचिन गर्ग आदि की प्रशंसा करते हैं व उन्हें हाथों हाथ लेते हैं | परन्तु अत्यंत खेद कि बात है कि कोई नया युवा हिंदी साहित्यकार इनकी जैसी सफलता प्राप्त नहीं कर पाया | यदि हिंदी में मौलिक रचना को प्रोत्साहित करना है तो हिंदी को स्वभिमान की भाषा बनाना जरूरी है |

अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान पाने के लिए भाषा की ताकत बहुत जरूरी है | जब तक हम उनकी(अंग्रेजी) भाषा में बात करते रहेंगे जिसमे वे हमसे बेहतर है तो वे हमेशा फायदे में रहेंगे पर जब हम अपनी भाषा(हिंदी) में बात करेंगे तो दोनों पक्ष एक ही धरातल (फील्ड) पर रहेंगे और किसी को अनुचित लाभ नहीं मिलेगा | कोई भी देश ऐसे देश की इज्जत नहीं करता जो केवल उनकी नक़ल करने की कोशिश करते हैं , अमेरिका और चीन भी यदि हमसे डरते हैं तो हमारी संस्कृति से न कि किसी और चीज़ से |

भारत में वर्तमान में अंग्रेजी को ज्यादा महत्व इसलिए मिला हुआ है क्योंकि यह व्यापार की भाषा बनी हुई है कालांतर में जब तकनीक के प्रयोग से नौकरियां कम होने लगेंगी और काम के लिए व्यक्तियों की ज्यादा आवश्कता नहीं रहेगी तो यही भाषा और संस्कृति हमे हमारी मानवीय क्षमता का अहसास कराएंगी जो हमें मशीनों व तकनीको की अपेक्षा बेहतर सिद्ध करेंगी | इसका सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका ही है जिसकी नौकरियां एशिया व अन्य जगह जाने के बाद भी अमेरिकी संस्कृति व सिनेमा विश्व स्तर पर छाया हुआ है इससे सिद्ध होता है कि भाषा व संस्कृति ही किसी राष्ट्र की असली धरोहर है | अतः हिंदी का संरक्षण व संवर्धन हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए |

परन्तु हिंदी के प्रोत्साहन का यह मतलब नहीं है कि अंग्रेजी को बिल्कुल खत्म कर दिया जाए | इस दिशा में अत्यंत भावुक होकर एकतरफा फैसले लेना भी गलत होंगा | कंसल्टेंसी फर्म मेकेंजी के अनुसार पश्चिम बंगाल की वाम सरकार द्वारा 1983 में प्राथमिक स्कूलों से अंग्रेजी को हटा लेने से लाखो बंगाली युवक अन्य राज्यों के युवाओं से नौकरी पाने के मामले में पिछड़ गए | अतः भाषा के मुद्दे पर लाभ और हानि का आंकलन करके ही कोई निर्णय लेना उचित होगा | यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि विश्व की यदि कोई अन्तराष्ट्रीय भाषा होगी तो केवल अंग्रेजी ही हो सकती है | भारत में अंग्रेज़ी को हमें अधिक से अधिक व्यवसायिक लाभ के लिए उपयोग करना चाहिए परन्तु अपनी राजभाषा हिंदी की उपेक्षा करके नहीं | इसके बजाय “ हिंदी पर जोर है पर अंग्रेजी जरूरी है “ के नारे पर काम करने की आवश्यकता है |

यदि हिंदी का अधिक इस्तेमाल करे और अंग्रेजी को भी नज़रंदाज़ ना करे तो इसके अत्यधिक फायदे होंगे जैसे कि हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करने वाले हजारो लोगों की जरूरत होगी , जिससे नई  नौकरिया पैदा होंगी | जिस तरह हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत से हमने हिंदी भाषा में अत्यधिक शब्द लिए उसी तरह हिंदी को कुछ शब्द अंग्रेजी से लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि इस तरह के आदान प्रदान से भाषा और अधिक वृहद् और अधिक एक्सेप्टेबल हो जाती है | इससे भाषा का विकास ही होता है आज यदि अंग्रेजी इतनी पोपुलर है इसका एक कारण यह है की इसने विश्व की अनेक भाषाओ से कई शब्द बिना किसी सोच विचार  के लिए हैं हिंदी के शब्द जैसे “चाय, वेरांडा ,अवतार , बंगलो, चीता, गुरु , जंगल “ आदि आज अंग्रेजी की शान बने हुए है क्या बुरा है यदि हम कुछ शब्द जैसे कि “सर्टिफिकेट , लाइन, लास्ट ,स्कूल, पावर “ अंग्रेजी से लेकर उसे हिंदीमय बना दे | हाल ही में जब अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने भारत आने से पहले हिंदी में “सबका साथ , सबका विकास “ कहा तो यह करोड़ो हिंदी भाषियों को यह किसी मधुर संगीत की तरह लगा | इस तरह की हिंदी डिप्लोमेसी से हिंदी के अच्छे दिन दूर नहीं लगते |
नोट :(यह आर्टिकल जनवरी 2015 को लिखा गया था ) 

Tuesday 3 January 2017

भाषा का सवाल

संविधान निर्माण के समय कई महत्वपूर्ण मुद्दों  का समाधान करने का प्रयास संविधान सभा ने बखूबी किया,उन सबमे जिन विषयों पर सर्वाधिक बहस हुई उनमे से एक था भाषा का सवाल |

हालांकि सभी इस बात से सहमत थे कि भारत जैसे विवधता भरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए सर्वमान्य राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है | उन दिनों भारत में सर्वाधिक प्रचलित भाषा थी “हिन्दुस्तानी” जो  हिंदी और उर्दू का मेल थी और सर्वाधिक लोगों के द्वारा बोली जाती थी और राष्ट्र भाषा बनने के लिए यह सबसे मजबूत दावेदार थी |

महात्मा गाँधी ने पहले से ही यह आभास कर लिया था कि स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में भारत को भाषा के सवाल को हल करना ही होगा इसके लिये उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा को ही सर्व उपुक्त पाया था |
 
महात्मा गाँधी ने अपने विचार हरिजन पत्रिका में अपने छपे लेख द्वारा प्रस्तुत किये , उनके अनुसार
 
"यह हिन्दूस्तानी न तो संस्कृत निष्ट हिंदी होनी चाहिए न फ़ारसी निष्ट उर्दू  इसे तो दोनों का सुन्दर सा मिश्रण होना चाहिए , हिन्दुस्तानी में दूसरे इलाको की बोली से भी शब्द लेने चाहिये और यदि जरुरत पड़े तो विदेशी भाषा से भी  परन्तु यदि वो शब्द आसानी से हमारी भाषा में घुल मिल सके तो ही | इस तरह हमें अपनी राष्ट्र भाषा को शक्तिशाली बनाना होगा जो सारे इंसानी विचारों और भावानाओ के पूरे समुच्चय को व्यक्त कर सके | सिर्फ हिंदी तक या उर्दू तक अपने आप  को सीमित रखना तो देशभक्ति की भावना और समझदारी के विरूद्ध  अपराध होगा"
 
 
पंडित जवाहर लाल नेहरु भी गाँधी जी के तरह हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे | चूंकि कांग्रेस के अधिकतर सदस्य इसके पक्ष में थे अतः मार्च 1947 में मौलिक अधिकार की सब कमिटी ने  यह निर्णय लिया कि  हिंदुस्तानी संघ की राज भाषा और सरकारी काम काज की भाषा होगी जिसे देवनागरी या फारसी लिपि में लिखा जा सकेगा | परन्तु अगस्त 1947 आते आते और भारत के विभाजन व पाकिस्तान के आस्तित्व में आने के बाद देश का माहौल बदल चुका था चूँकि पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया था अतः भारतीयो में  भी उर्दू युक्त हिंदुस्तानी भाषा को त्याग कर हिन्दी भाषा अपनाए जाने की मांग उठने लगी | बदली परिस्थितिओं में सदस्यों की माँग पर  कांग्रेस ने संघ की राजभाषा हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी करने का प्रस्ताव पास कर दिया जिसके बाद संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी ने भी अपने मसौदे में सभी जगह हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी भाषा को जगह दे दी |
डॉ अम्बेडकर के विचार थे की चूँकि कांग्रेस बहुमत में है और यदि उन्होंने यह फैसला ले लिया है तो आज नहीं तो कल हमें इसे स्वीकार करना ही होगा |

परन्तु जब यह ड्राफ्ट संविधान सभा में प्रस्तुत हुआ तो कई लोगों ने इस परिवर्तन का विरोध किया और इस पर संविधान सभा में तीखी बहस हुई | हिंदी के पक्ष में जहाँ उतर भारत के लोग थे तो विरोध में दक्षिण ,पश्चिम और पूर्व के प्रतिनिधी थे | कांग्रेस में भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर पक्ष बटा हुआ दिखाई दे रहा था | कई सदस्यों ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की पैरवी करना चालू कर दिया और उन्हें भी उचित दर्जा देने की मांग उठने लगी | 32 करोड़ लोगों में से 10 करोड़ लोगों के द्वारा बोले जाने वाली हिंदी को अन्य सभी पर थोपने के आरोप लगाया | इस तरह एक सीधा साधा भाषा का प्रश्न सम्प्रदायिक और  क्षेत्रीय   रंगों में रंग चूका था | इस मुद्दे को सुलझाने का जिम्मा एक विशेष कमिटी को दिया गया जिसके सदस्य थे श्री के एम् मुंशी और श्री गोपालास्वामी आयंगार | श्री मुंशी आयंगार  कमिटी ने संविधान सभा में प्रस्ताव रखा की भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी जिसे देवनागरी में लिखा जाये और भारतीय अंको के अन्तरराष्ट्रीय स्वरुप कोअपनाना चाहिए साथ ही उन्होंने यह भी कहा की चूँकि कानून का निर्माण और उसकी व्याख्या शब्दों के सही चयन और उससे जुड़े अर्थ पर निर्भर करता है अतः जब तक हिंदी भाषा का स्तर वहां तक नहीं पहुँच जाए जहाँ उस समय अंग्रेजी थी तब तक संसद की कामकाज की भाषा अंग्रेजी रखी जाए इसके लिए उन्होंने 15 वर्ष की समयावधि निर्धारित की | इस प्रस्ताव का हिंदी के पक्षकारों ने यह कह कर विरोध किया कि उन्हें देवनागरी अंक चाहिए और हिंदी को तत्काल राज भाषा घोषित किया जाए | हिंदी के पक्ष में पैरवी करने वालो में पुरुषोत्तम दास टंडन ,सेठ गोविन्द दास तथा डॉ रघुबीर प्रमुख थे |इस मुददे पर हुई बहस में कुछ विद्वानो के विचार प्रस्तुत है

डॉ श्यामा पद मुखर्जी, जो पश्चिम बंगाल से आते थे , ने कहा “मैं अपने कई मित्रों के इस विचार से कि आगे चल कर भारत में केवल एक भाषा और केवल एक भाषा ही होगी पूर्णतः असहमत हूँ  | केवल  संविधान के अनुच्छेद को पास कराने मात्र से कोई भाषा राष्ट्र भाषा नहीं बन सकती खासकर तब जब वह जबरदस्ती लादी गई हो | भारत में अनेकता में एकता आपसी समझ और सहमती  के द्वारा प्राप्त की जा सकती है | अंको को लेकर भी बहस बेमतलब है वैज्ञानिक खोजों , एकाउंटिंग , ऑडिट में अन्तरराष्ट्रीय अंको का उपयोग आवश्यक है “
 
पी सुबरायन, जो दक्षिण भारत के विद्वान् थे ,ने अंको के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को अपनाए जाने के पक्ष में  “इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका “ का सन्दर्भ दिया जिसके अनुसार तीसरी सदी ई पू, के अशोक अभिलेख में  1 4 6 , दूसरी सदी ई पू  के नानाघाट अभिलेख में 2 4 6 9 तथा पहली और दूसरी शताब्दी में निर्मित नाशिक गुफा में 2 3 4 5 6 7 9 अंक पाए गए हैं | इस तरह भारतीय अंको का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप देवनागरी अंको से बहुत पहले भारत में ही इस्तेमाल किया जाता था | तो इसे अपनाने में विरोध क्यों ?

जयपाल सिंह मुन्डा , जिनकी कप्तानी में भारत ने 1928 में पहला ओलंपिक स्वर्ण जीता था , ने प्राचीन आदिवासियों  द्वारा बोली जाने वाली मुंडारी, गोंडी और उराओ को भी उचित जगह
दिए जाने की मांग की |
 
भाषा के विवाद में सबसे ओजस्वी भाषण मौलाना अबुल कलाम आजाद का था जो बाद में प्रथम शिक्षा मंत्री हुए  14 सितम्बर 1949 को दियी गये उनके भाषण के अंश हैं
 
“अगर हम सब यह चाहते हैं की अंग्रेजी के जगह  हमारी कोई एक भाषा हो तो अंग्रेजी को कायम रखते हुए राष्ट्र भाषा को बढाने का काम करना चहिए | वैसे भी एक राष्ट्र के लिए 15 वर्ष की अवधी कोई ज्यादा नहीं होती  | राष्ट्र भाषा के लिए तीन भाषा दावेदार है हिंदी ,उर्दू और हिन्दुस्तानी हैं | हिन्दुस्तानी में सभी को अपने अन्दर समेटने का  गुण है यह केवल संस्कृत और फ़ारसी तक सीमित नहीं रहती बल्कि इसमें अन्य भाषाओ के शब्दों को अपने में समाने की गुंजाइश  रहती है | हम यह भूल रहे हैं कि जबाने बनाई नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद बन जाती है , जबाने ढाली नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद ढल जाती है | जबाने क़ानून की पकड़ से बाहर है | जबानों पर ताले नहीं लगाये जाते बल्कि वो हर ताले को तोड़ देती है |जबाने अपना रास्ता खुद ब खुद बनाती है और अपनी मंजिल पाती है |”
 

इस भाषण के पश्चात कांग्रेस के सदस्यों ने एक  मीटिंग की जिसमे हिंदी के प्रति नरम रुख और गरम रुख रखने वालो ने समझौता कर लिया| राजभाषा के रूप में हिंदी को अपनाया गया जिसकी लिपि देवनागरी और अंको का अंतर्राष्ट्रीय भारतीय स्वरुप स्वीकार कर ली गई साथ ही संसद के काम काज की भाषा को पहले 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी रखा गया उसी दिन शाम को यह प्रस्ताव संविधान सभा में पास हो गया |  

मौलाना आजाद के विचार वर्तमान परिपेक्ष्य में शत प्रतिशत सत्य साबित होते हैं पिछले 70 वर्षीं में तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी हिंदी उस जगह नहीं पहुँच पाई जिसके कल्पना संविधान सभा के सदस्यों ने की थी | वास्तव में भाषा को बांधने का विचार ही गलत था | आज यदि हिंदी आगे बढ़ रही है तो इसका मुख्य कारण है की आज की हिंदी किसी सीमा में बंधी नहीं है हिंदी पत्र ,पत्रिकाओ में लेखो में अन्य भाषाओ विशेषकर अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है | संविधान सभा ने उस समय हिन्दुस्तानी नहीं अपनाई परन्तु मौलाना आजाद के विचारों के अनुरूप भाषा खुद ब खुद नए रूप में ढल गयी जिसे आज सभी “ हिंग्लिश “ के नाम से जानते हैं |

पंकज सिंह