संविधान निर्माण के समय कई महत्वपूर्ण मुद्दों का समाधान करने का प्रयास संविधान सभा ने बखूबी किया,उन सबमे जिन विषयों पर सर्वाधिक बहस हुई उनमे से एक था भाषा का सवाल |
हालांकि सभी इस बात से सहमत थे कि भारत जैसे विवधता भरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए सर्वमान्य राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है | उन दिनों भारत में सर्वाधिक प्रचलित भाषा थी “हिन्दुस्तानी” जो हिंदी और उर्दू का मेल थी और सर्वाधिक लोगों के द्वारा बोली जाती थी और राष्ट्र भाषा बनने के लिए यह सबसे मजबूत दावेदार थी |
महात्मा गाँधी ने पहले से ही यह आभास कर लिया था कि स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में भारत को भाषा के सवाल को हल करना ही होगा इसके लिये उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा को ही सर्व उपुक्त पाया था |
महात्मा गाँधी ने अपने विचार हरिजन पत्रिका में अपने छपे लेख द्वारा प्रस्तुत किये , उनके अनुसार
"यह हिन्दूस्तानी न तो संस्कृत निष्ट हिंदी होनी चाहिए न फ़ारसी निष्ट उर्दू इसे तो दोनों का सुन्दर सा मिश्रण होना चाहिए , हिन्दुस्तानी में दूसरे इलाको की बोली से भी शब्द लेने चाहिये और यदि जरुरत पड़े तो विदेशी भाषा से भी परन्तु यदि वो शब्द आसानी से हमारी भाषा में घुल मिल सके तो ही | इस तरह हमें अपनी राष्ट्र भाषा को शक्तिशाली बनाना होगा जो सारे इंसानी विचारों और भावानाओ के पूरे समुच्चय को व्यक्त कर सके | सिर्फ हिंदी तक या उर्दू तक अपने आप को सीमित रखना तो देशभक्ति की भावना और समझदारी के विरूद्ध अपराध होगा"
पंडित जवाहर लाल नेहरु भी गाँधी जी के तरह हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे | चूंकि कांग्रेस के अधिकतर सदस्य इसके पक्ष में थे अतः मार्च 1947 में मौलिक अधिकार की सब कमिटी ने यह निर्णय लिया कि हिंदुस्तानी संघ की राज भाषा और सरकारी काम काज की भाषा होगी जिसे देवनागरी या फारसी लिपि में लिखा जा सकेगा | परन्तु अगस्त 1947 आते आते और भारत के विभाजन व पाकिस्तान के आस्तित्व में आने के बाद देश का माहौल बदल चुका था चूँकि पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया था अतः भारतीयो में भी उर्दू युक्त हिंदुस्तानी भाषा को त्याग कर हिन्दी भाषा अपनाए जाने की मांग उठने लगी | बदली परिस्थितिओं में सदस्यों की माँग पर कांग्रेस ने संघ की राजभाषा हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी करने का प्रस्ताव पास कर दिया जिसके बाद संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी ने भी अपने मसौदे में सभी जगह हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी भाषा को जगह दे दी |
डॉ अम्बेडकर के विचार थे की चूँकि कांग्रेस बहुमत में है और यदि उन्होंने यह फैसला ले लिया है तो आज नहीं तो कल हमें इसे स्वीकार करना ही होगा |
परन्तु जब यह ड्राफ्ट संविधान सभा में प्रस्तुत हुआ तो कई लोगों ने इस परिवर्तन का विरोध किया और इस पर संविधान सभा में तीखी बहस हुई | हिंदी के पक्ष में जहाँ उतर भारत के लोग थे तो विरोध में दक्षिण ,पश्चिम और पूर्व के प्रतिनिधी थे | कांग्रेस में भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर पक्ष बटा हुआ दिखाई दे रहा था | कई सदस्यों ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की पैरवी करना चालू कर दिया और उन्हें भी उचित दर्जा देने की मांग उठने लगी | 32 करोड़ लोगों में से 10 करोड़ लोगों के द्वारा बोले जाने वाली हिंदी को अन्य सभी पर थोपने के आरोप लगाया | इस तरह एक सीधा साधा भाषा का प्रश्न सम्प्रदायिक और क्षेत्रीय रंगों में रंग चूका था | इस मुद्दे को सुलझाने का जिम्मा एक विशेष कमिटी को दिया गया जिसके सदस्य थे श्री के एम् मुंशी और श्री गोपालास्वामी आयंगार | श्री मुंशी आयंगार कमिटी ने संविधान सभा में प्रस्ताव रखा की भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी जिसे देवनागरी में लिखा जाये और भारतीय अंको के अन्तरराष्ट्रीय स्वरुप कोअपनाना चाहिए साथ ही उन्होंने यह भी कहा की चूँकि कानून का निर्माण और उसकी व्याख्या शब्दों के सही चयन और उससे जुड़े अर्थ पर निर्भर करता है अतः जब तक हिंदी भाषा का स्तर वहां तक नहीं पहुँच जाए जहाँ उस समय अंग्रेजी थी तब तक संसद की कामकाज की भाषा अंग्रेजी रखी जाए इसके लिए उन्होंने 15 वर्ष की समयावधि निर्धारित की | इस प्रस्ताव का हिंदी के पक्षकारों ने यह कह कर विरोध किया कि उन्हें देवनागरी अंक चाहिए और हिंदी को तत्काल राज भाषा घोषित किया जाए | हिंदी के पक्ष में पैरवी करने वालो में पुरुषोत्तम दास टंडन ,सेठ गोविन्द दास तथा डॉ रघुबीर प्रमुख थे |इस मुददे पर हुई बहस में कुछ विद्वानो के विचार प्रस्तुत है
डॉ श्यामा पद मुखर्जी, जो पश्चिम बंगाल से आते थे , ने कहा “मैं अपने कई मित्रों के इस विचार से कि आगे चल कर भारत में केवल एक भाषा और केवल एक भाषा ही होगी पूर्णतः असहमत हूँ | केवल संविधान के अनुच्छेद को पास कराने मात्र से कोई भाषा राष्ट्र भाषा नहीं बन सकती खासकर तब जब वह जबरदस्ती लादी गई हो | भारत में अनेकता में एकता आपसी समझ और सहमती के द्वारा प्राप्त की जा सकती है | अंको को लेकर भी बहस बेमतलब है वैज्ञानिक खोजों , एकाउंटिंग , ऑडिट में अन्तरराष्ट्रीय अंको का उपयोग आवश्यक है “
पी सुबरायन, जो दक्षिण भारत के विद्वान् थे ,ने अंको के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को अपनाए जाने के पक्ष में “इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका “ का सन्दर्भ दिया जिसके अनुसार तीसरी सदी ई पू, के अशोक अभिलेख में 1 4 6 , दूसरी सदी ई पू के नानाघाट अभिलेख में 2 4 6 9 तथा पहली और दूसरी शताब्दी में निर्मित नाशिक गुफा में 2 3 4 5 6 7 9 अंक पाए गए हैं | इस तरह भारतीय अंको का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप देवनागरी अंको से बहुत पहले भारत में ही इस्तेमाल किया जाता था | तो इसे अपनाने में विरोध क्यों ?
जयपाल सिंह मुन्डा , जिनकी कप्तानी में भारत ने 1928 में पहला ओलंपिक स्वर्ण जीता था , ने प्राचीन आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली मुंडारी, गोंडी और उराओ को भी उचित जगह
दिए जाने की मांग की |
भाषा के विवाद में सबसे ओजस्वी भाषण मौलाना अबुल कलाम आजाद का था जो बाद में प्रथम शिक्षा मंत्री हुए 14 सितम्बर 1949 को दियी गये उनके भाषण के अंश हैं
“अगर हम सब यह चाहते हैं की अंग्रेजी के जगह हमारी कोई एक भाषा हो तो अंग्रेजी को कायम रखते हुए राष्ट्र भाषा को बढाने का काम करना चहिए | वैसे भी एक राष्ट्र के लिए 15 वर्ष की अवधी कोई ज्यादा नहीं होती | राष्ट्र भाषा के लिए तीन भाषा दावेदार है हिंदी ,उर्दू और हिन्दुस्तानी हैं | हिन्दुस्तानी में सभी को अपने अन्दर समेटने का गुण है यह केवल संस्कृत और फ़ारसी तक सीमित नहीं रहती बल्कि इसमें अन्य भाषाओ के शब्दों को अपने में समाने की गुंजाइश रहती है | हम यह भूल रहे हैं कि जबाने बनाई नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद बन जाती है , जबाने ढाली नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद ढल जाती है | जबाने क़ानून की पकड़ से बाहर है | जबानों पर ताले नहीं लगाये जाते बल्कि वो हर ताले को तोड़ देती है |जबाने अपना रास्ता खुद ब खुद बनाती है और अपनी मंजिल पाती है |”
इस भाषण के पश्चात कांग्रेस के सदस्यों ने एक मीटिंग की जिसमे हिंदी के प्रति नरम रुख और गरम रुख रखने वालो ने समझौता कर लिया| राजभाषा के रूप में हिंदी को अपनाया गया जिसकी लिपि देवनागरी और अंको का अंतर्राष्ट्रीय भारतीय स्वरुप स्वीकार कर ली गई साथ ही संसद के काम काज की भाषा को पहले 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी रखा गया उसी दिन शाम को यह प्रस्ताव संविधान सभा में पास हो गया |
मौलाना आजाद के विचार वर्तमान परिपेक्ष्य में शत प्रतिशत सत्य साबित होते हैं पिछले 70 वर्षीं में तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी हिंदी उस जगह नहीं पहुँच पाई जिसके कल्पना संविधान सभा के सदस्यों ने की थी | वास्तव में भाषा को बांधने का विचार ही गलत था | आज यदि हिंदी आगे बढ़ रही है तो इसका मुख्य कारण है की आज की हिंदी किसी सीमा में बंधी नहीं है हिंदी पत्र ,पत्रिकाओ में लेखो में अन्य भाषाओ विशेषकर अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है | संविधान सभा ने उस समय हिन्दुस्तानी नहीं अपनाई परन्तु मौलाना आजाद के विचारों के अनुरूप भाषा खुद ब खुद नए रूप में ढल गयी जिसे आज सभी “ हिंग्लिश “ के नाम से जानते हैं |
पंकज सिंह
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