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Tuesday, 3 January 2017

भाषा का सवाल

संविधान निर्माण के समय कई महत्वपूर्ण मुद्दों  का समाधान करने का प्रयास संविधान सभा ने बखूबी किया,उन सबमे जिन विषयों पर सर्वाधिक बहस हुई उनमे से एक था भाषा का सवाल |

हालांकि सभी इस बात से सहमत थे कि भारत जैसे विवधता भरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए सर्वमान्य राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है | उन दिनों भारत में सर्वाधिक प्रचलित भाषा थी “हिन्दुस्तानी” जो  हिंदी और उर्दू का मेल थी और सर्वाधिक लोगों के द्वारा बोली जाती थी और राष्ट्र भाषा बनने के लिए यह सबसे मजबूत दावेदार थी |

महात्मा गाँधी ने पहले से ही यह आभास कर लिया था कि स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में भारत को भाषा के सवाल को हल करना ही होगा इसके लिये उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा को ही सर्व उपुक्त पाया था |
 
महात्मा गाँधी ने अपने विचार हरिजन पत्रिका में अपने छपे लेख द्वारा प्रस्तुत किये , उनके अनुसार
 
"यह हिन्दूस्तानी न तो संस्कृत निष्ट हिंदी होनी चाहिए न फ़ारसी निष्ट उर्दू  इसे तो दोनों का सुन्दर सा मिश्रण होना चाहिए , हिन्दुस्तानी में दूसरे इलाको की बोली से भी शब्द लेने चाहिये और यदि जरुरत पड़े तो विदेशी भाषा से भी  परन्तु यदि वो शब्द आसानी से हमारी भाषा में घुल मिल सके तो ही | इस तरह हमें अपनी राष्ट्र भाषा को शक्तिशाली बनाना होगा जो सारे इंसानी विचारों और भावानाओ के पूरे समुच्चय को व्यक्त कर सके | सिर्फ हिंदी तक या उर्दू तक अपने आप  को सीमित रखना तो देशभक्ति की भावना और समझदारी के विरूद्ध  अपराध होगा"
 
 
पंडित जवाहर लाल नेहरु भी गाँधी जी के तरह हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे | चूंकि कांग्रेस के अधिकतर सदस्य इसके पक्ष में थे अतः मार्च 1947 में मौलिक अधिकार की सब कमिटी ने  यह निर्णय लिया कि  हिंदुस्तानी संघ की राज भाषा और सरकारी काम काज की भाषा होगी जिसे देवनागरी या फारसी लिपि में लिखा जा सकेगा | परन्तु अगस्त 1947 आते आते और भारत के विभाजन व पाकिस्तान के आस्तित्व में आने के बाद देश का माहौल बदल चुका था चूँकि पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया था अतः भारतीयो में  भी उर्दू युक्त हिंदुस्तानी भाषा को त्याग कर हिन्दी भाषा अपनाए जाने की मांग उठने लगी | बदली परिस्थितिओं में सदस्यों की माँग पर  कांग्रेस ने संघ की राजभाषा हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी करने का प्रस्ताव पास कर दिया जिसके बाद संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी ने भी अपने मसौदे में सभी जगह हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी भाषा को जगह दे दी |
डॉ अम्बेडकर के विचार थे की चूँकि कांग्रेस बहुमत में है और यदि उन्होंने यह फैसला ले लिया है तो आज नहीं तो कल हमें इसे स्वीकार करना ही होगा |

परन्तु जब यह ड्राफ्ट संविधान सभा में प्रस्तुत हुआ तो कई लोगों ने इस परिवर्तन का विरोध किया और इस पर संविधान सभा में तीखी बहस हुई | हिंदी के पक्ष में जहाँ उतर भारत के लोग थे तो विरोध में दक्षिण ,पश्चिम और पूर्व के प्रतिनिधी थे | कांग्रेस में भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर पक्ष बटा हुआ दिखाई दे रहा था | कई सदस्यों ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की पैरवी करना चालू कर दिया और उन्हें भी उचित दर्जा देने की मांग उठने लगी | 32 करोड़ लोगों में से 10 करोड़ लोगों के द्वारा बोले जाने वाली हिंदी को अन्य सभी पर थोपने के आरोप लगाया | इस तरह एक सीधा साधा भाषा का प्रश्न सम्प्रदायिक और  क्षेत्रीय   रंगों में रंग चूका था | इस मुद्दे को सुलझाने का जिम्मा एक विशेष कमिटी को दिया गया जिसके सदस्य थे श्री के एम् मुंशी और श्री गोपालास्वामी आयंगार | श्री मुंशी आयंगार  कमिटी ने संविधान सभा में प्रस्ताव रखा की भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी जिसे देवनागरी में लिखा जाये और भारतीय अंको के अन्तरराष्ट्रीय स्वरुप कोअपनाना चाहिए साथ ही उन्होंने यह भी कहा की चूँकि कानून का निर्माण और उसकी व्याख्या शब्दों के सही चयन और उससे जुड़े अर्थ पर निर्भर करता है अतः जब तक हिंदी भाषा का स्तर वहां तक नहीं पहुँच जाए जहाँ उस समय अंग्रेजी थी तब तक संसद की कामकाज की भाषा अंग्रेजी रखी जाए इसके लिए उन्होंने 15 वर्ष की समयावधि निर्धारित की | इस प्रस्ताव का हिंदी के पक्षकारों ने यह कह कर विरोध किया कि उन्हें देवनागरी अंक चाहिए और हिंदी को तत्काल राज भाषा घोषित किया जाए | हिंदी के पक्ष में पैरवी करने वालो में पुरुषोत्तम दास टंडन ,सेठ गोविन्द दास तथा डॉ रघुबीर प्रमुख थे |इस मुददे पर हुई बहस में कुछ विद्वानो के विचार प्रस्तुत है

डॉ श्यामा पद मुखर्जी, जो पश्चिम बंगाल से आते थे , ने कहा “मैं अपने कई मित्रों के इस विचार से कि आगे चल कर भारत में केवल एक भाषा और केवल एक भाषा ही होगी पूर्णतः असहमत हूँ  | केवल  संविधान के अनुच्छेद को पास कराने मात्र से कोई भाषा राष्ट्र भाषा नहीं बन सकती खासकर तब जब वह जबरदस्ती लादी गई हो | भारत में अनेकता में एकता आपसी समझ और सहमती  के द्वारा प्राप्त की जा सकती है | अंको को लेकर भी बहस बेमतलब है वैज्ञानिक खोजों , एकाउंटिंग , ऑडिट में अन्तरराष्ट्रीय अंको का उपयोग आवश्यक है “
 
पी सुबरायन, जो दक्षिण भारत के विद्वान् थे ,ने अंको के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को अपनाए जाने के पक्ष में  “इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका “ का सन्दर्भ दिया जिसके अनुसार तीसरी सदी ई पू, के अशोक अभिलेख में  1 4 6 , दूसरी सदी ई पू  के नानाघाट अभिलेख में 2 4 6 9 तथा पहली और दूसरी शताब्दी में निर्मित नाशिक गुफा में 2 3 4 5 6 7 9 अंक पाए गए हैं | इस तरह भारतीय अंको का अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप देवनागरी अंको से बहुत पहले भारत में ही इस्तेमाल किया जाता था | तो इसे अपनाने में विरोध क्यों ?

जयपाल सिंह मुन्डा , जिनकी कप्तानी में भारत ने 1928 में पहला ओलंपिक स्वर्ण जीता था , ने प्राचीन आदिवासियों  द्वारा बोली जाने वाली मुंडारी, गोंडी और उराओ को भी उचित जगह
दिए जाने की मांग की |
 
भाषा के विवाद में सबसे ओजस्वी भाषण मौलाना अबुल कलाम आजाद का था जो बाद में प्रथम शिक्षा मंत्री हुए  14 सितम्बर 1949 को दियी गये उनके भाषण के अंश हैं
 
“अगर हम सब यह चाहते हैं की अंग्रेजी के जगह  हमारी कोई एक भाषा हो तो अंग्रेजी को कायम रखते हुए राष्ट्र भाषा को बढाने का काम करना चहिए | वैसे भी एक राष्ट्र के लिए 15 वर्ष की अवधी कोई ज्यादा नहीं होती  | राष्ट्र भाषा के लिए तीन भाषा दावेदार है हिंदी ,उर्दू और हिन्दुस्तानी हैं | हिन्दुस्तानी में सभी को अपने अन्दर समेटने का  गुण है यह केवल संस्कृत और फ़ारसी तक सीमित नहीं रहती बल्कि इसमें अन्य भाषाओ के शब्दों को अपने में समाने की गुंजाइश  रहती है | हम यह भूल रहे हैं कि जबाने बनाई नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद बन जाती है , जबाने ढाली नहीं जाती बल्कि खुद ब खुद ढल जाती है | जबाने क़ानून की पकड़ से बाहर है | जबानों पर ताले नहीं लगाये जाते बल्कि वो हर ताले को तोड़ देती है |जबाने अपना रास्ता खुद ब खुद बनाती है और अपनी मंजिल पाती है |”
 

इस भाषण के पश्चात कांग्रेस के सदस्यों ने एक  मीटिंग की जिसमे हिंदी के प्रति नरम रुख और गरम रुख रखने वालो ने समझौता कर लिया| राजभाषा के रूप में हिंदी को अपनाया गया जिसकी लिपि देवनागरी और अंको का अंतर्राष्ट्रीय भारतीय स्वरुप स्वीकार कर ली गई साथ ही संसद के काम काज की भाषा को पहले 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी रखा गया उसी दिन शाम को यह प्रस्ताव संविधान सभा में पास हो गया |  

मौलाना आजाद के विचार वर्तमान परिपेक्ष्य में शत प्रतिशत सत्य साबित होते हैं पिछले 70 वर्षीं में तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी हिंदी उस जगह नहीं पहुँच पाई जिसके कल्पना संविधान सभा के सदस्यों ने की थी | वास्तव में भाषा को बांधने का विचार ही गलत था | आज यदि हिंदी आगे बढ़ रही है तो इसका मुख्य कारण है की आज की हिंदी किसी सीमा में बंधी नहीं है हिंदी पत्र ,पत्रिकाओ में लेखो में अन्य भाषाओ विशेषकर अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है | संविधान सभा ने उस समय हिन्दुस्तानी नहीं अपनाई परन्तु मौलाना आजाद के विचारों के अनुरूप भाषा खुद ब खुद नए रूप में ढल गयी जिसे आज सभी “ हिंग्लिश “ के नाम से जानते हैं |

पंकज सिंह

Monday, 15 September 2014

संचार क्रांति के साथ आगे बढ़ती हमारी हिंदी

वर्तमान युग नि:संदेह संचार क्रांति का है | सभी क्षेत्र की प्रगति में संचार क्रांति इस तरह मिल चुकी है की अब यह उसका अभिन्न अंग बन चुकी है चाहे वह तकनीकी क्षेत्र हो, चाहे चिकित्सा , चाहे रक्षा या व्यापार अब संचार की तकनीको का प्रयोग किये बिना इन क्षेत्रो में आगे बढ़ना असंभव ही लगता है | भाषा के विकास के  क्षेत्र में भी संचार क्रांति ने अपनी भूमिका निभाई है , संचार के आधुनिकतम साधन जैसे मोबाइल या इंटरनेट (अंतरजाल) भले ही अंग्रेजी भाषा से चालू हुए हो परन्तु समय व स्थान के अनुसार इसने बाकी भाषाओ को भी जगह दी है व उन्हें समृद्ध किया है  |
हिंदी हमारी मातृभाषा है तभी तो हमें इस भाषा से एक लगाव महसूस होता है। इस लगाव ने इंटरनेट (अंतरजाल) क्रांति के युग में भी अपनी जगह बना रखी है। कहानी हो या कविता भावप्रधान तभी लगती है जब हिंदी में लिखी और पढ़ी जाये। हिंदी से अलग होना नामुमकिन है लेकिन जब कम्प्यूटर पर काम करने का समय आया तो एक बार के लिए इस भाषा पर प्रश्न चिन्ह लग गया भारत में अब जब हर छोटी-बड़ी जगह पर काम कम्प्यूटर पर होने लगे हैं तो कम्प्यूटर बनाने वाली कम्पनियाँ भी इस बात को बखूबी जानती है कि भारत में अगर अपना वर्चस्व बढ़ाना है तो हिंदी भाषा भी ऑपरेटिंग सिस्टम में होनी चाहिये। गूगल ने हिंदी के यूनिकोड फॉन्ट उपलब्ध कराये हैं। इसके साथ ही, गूगल ने ट्रांसलिट्रेशन टूल भी लॉन्च किया जिसमें इंग्लिश में टाइप किया गया हिंदी में बदल जाता है। पहले नेट किसी हिंदी अखबार या पत्रिका को पढ़ने के लिए सही लिपि के फॉन्ट का कम्प्यूटर में डाउनलोड होना आवश्यक होता था लेकिन अब रोमन लिपि में तकनीकी विकास के कारण कभी भी, कहीं भी बिना किसी विशेष फॉन्ट डाउनलोड के हिंदी को पढ़ा जा सकता है।
मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टमों में हिन्दी का प्रवेश वर्ष 2005 के बाद शुरु हुआ। नोकिया के मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम सिम्बियन के कुछ संस्करणों में आंशिक हिन्दी समर्थन आया। माइक्रोसॉफ्ट के विण्डोज़ मोबाइल के कुछ संस्करणों में आयरॉन्स हिन्दी सपोर्ट नामक थर्ड पार्टी सॉफ्टवेयर के जरिये हिन्दी समर्थन आया। बाद में ऍपल के मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम आइओऍस, गूगल के मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम ऍण्ड्रॉइड तथा रिम के ब्लैकबेरी ओऍस में भी हिन्दी समर्थन उपलब्ध हुआ। वर्तमान में माइक्रोसॉफ्ट के विण्डोज़ फोन को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टमों में हिन्दी समर्थन है। मोबाइल में हिंदी सॉफ्टवेयर की उपलब्धता ने लोगों का काम और अधिक आसान कर दिया है।
बहरहाल इंटरनेट (अंतरजाल) पर हिंदी के शुरुआती विकास के क्षेत्र में सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज) ने भी उल्लेखनीय काम किया है। शुरुआत में अंतरजाल पर हिंदी देखने के लिए जहां किसी भी फॉन्ट की इमेज (पीडीएफ) ही इस्तेमाल की जा सकती थी। जिस समय अंतरजाल पर हिंदी के लिए काम कर रहे सरकारी संस्थान टीआईडीएल (टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट फॉर इंडियन लैंग्वेज)  और सी-डैक जैसे सरकारी विभाग तमाम अव्यावहारिक कोशिशें कर रहे थे, उस दौरान सीएसडीएस ने हिंदी के इस्तेमाल से संबंधित तमाम सॉफ्टवेयर बनाकर उनका मुफ्त वितरण शुरू कर दिया था।
वर्तमान में इंटरनेट (अंतरजाल) व मोबाइल के लगभग सभी काम हिंदी में किये जा सकते है | इससे भाषा के प्रचार प्रसार में बहुत मदद मिली है | अंतरजाल में तो हिंदी के आने से एक नई क्रांति का प्रारंभ हुआ है | वर्तमान में लगभग सभी समाचार हिंदी भाषा में अंतरजाल में उपलब्ध है जिसका उपयोग न केवल देश में रह रहे करोड़ो लोग उठा रहे है बल्कि विदेशो में बसे भारतीय भी हिंदी समाचार व साहित्य पढ़ कर आनंदित हो रहे हैं| हिंदी अन्य भारतीय भाषाओ की तुलना में अंतरजाल में ज्यादा तेजी से आगे बढ़ी है इसका मुख्य कारण युवा पीढ़ी का इसे हाथो हाथ लेना है | नई पीढ़ी अंतरजाल में हिंदी के उपयोग को लेकर आक्रामक रुख अपनाए हुए है और ब्लॉग , सोशल मीडिया में इसे धडल्ले से उपयोग कर रही है | अंतरजाल में हिंदी के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए विश्व की जानी मानी माइक्रो ब्लॉगिंग साईट ट्विटर ने भी अपनी सेवा हिंदी में शुरू कर दी है यह हिंदी बोलने व पढने वालो के लिए गर्व की बात है | अंतरजाल ने हिंदी भाषा में लिखने वालो के हाथों को सशक्त किया है , सृजनशील व्यक्तियों को इंटरनेट (अंतरजाल) ने अपना मालिक खुद बना दिया है | पहले किसी लेखक को अपने विचार पाठको तक पहुचाने के लिए पुस्तक प्रकाशकों के कितने चक्कर लगाने पड़ते थे कइयो की रचनाये तो कभी पाठको के बीच पहुँच ही नहीं पाती थी परन्तु अंतरजाल ने उनके रास्ते की सभी बाधाओं को दूर कर उनकी राह आसान कर दी है | इससे अंतरजाल पर नए व युवा लेखको की बाढ़ सी आ गई है | जहाँ पहले अंतरजाल पर हिंदी के केवल इक्का दुक्का विषय ही मिलते थे पर अब उन विषयों का दायरा इतना बढ़ गया है की कोई सीमा नहीं रही |
एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक हिंदी बहुत जल्द इंटरनेट (अंतरजाल) पर अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बन जाएगी। जबकि वर्तमान में हिंदी अंतरजाल पर उपयोग की जाने वाली शीर्ष 10 भाषाओ में भी नहीं है इसके बाद भी विशेषज्ञों का ऐसा सोचना हिंदी की क्षमता को ही दर्शाता है |
इंटरनेट (अंतरजाल) पर हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने में ब्लॉगिंग का अहम योगदान रहा है। ब्लॉग एक ऐसा माध्यम है जो लिखने और पढने वाले को सुकून देता है। अंतरजाल पर उपलब्ध हिंदी कंटेट(सामग्री) में सबसे बड़ा योगदान हिंदी में ब्लॉग लिखने वाले ब्लॉगरों का ही है | हिंदी का सर्वप्रथम ब्लॉग लिखने का गौरव श्री आलोक कुमार जी को जाता है जिन्होंने 21 अप्रैल 2003 को पहला ब्लॉग लिखा था, इस तरह अंतरजाल में हिंदी ब्लॉगिंग के अत्यंत सफल 10 वर्ष बीत चुके है | वर्तमान में ऐसे हिंदी ब्लागों की संख्या कई लाख तक पहुँच चुकी है | अब हिंदी भाषा के ब्लॉग मात्र अभिव्यक्ति का एक माध्यम न होकर सामाजिक मंच बन गया है  | मौजूदा दौर में हिंदी में सामुदायिक ब्लॉगों के अलावा साहित्य, संस्कृति और सिनेमा जैसे विषयों पर कई ब्लॉग सक्रिय हैं। इन ब्लॉगों पर सामाजिक मुद्दों की भी खूब धूम रहती है।  आने वाले दस वर्ष के अंदर ब्लॉग हिंदी साहित्य के विकास का प्रतीक होगा। दुनिया की अन्य भाषाएं भी इस सर्वसुलभ माध्यम का इस्तेमाल अपनी भाषा व उसके साहित्य के विकास के लिए कर रही हैं।

तो फिर हिंदी क्यों पीछे रहे?